कौन सी मंज़िल है जो बे-ख़्वाब आँखों में नहीं
कौन सी मंज़िल है जो बे-ख़्वाब आँखों में नहीं
एक सूरज ढूँढता हूँ जो कि सपनों में नहीं
देखता रहता हूँ मिटते शहर के नक़्श-ओ-निगार
आँख में वो सूरतें भी हैं कि गलियों में नहीं
मौसमों का रुख़ उधर को है हवाओं का इधर
जंगलों में बात कोई है कि शहरों में नहीं
पीली पीली तितलियाँ हैं और महरूमी का रक़्स
कौन सा वो ज़ाइक़ा होगा कि फूलों में नहीं
यूँ तो हर जानिब खड़े हैं ये क़तार-अंदर-क़तार
एक ठंडक है कि इन पेड़ों के सायों में नहीं
चाँद तारों की ज़ियाएँ कहकशाओं के हुजूम
कौन सा वो आसमाँ है जो ज़मीनों में नहीं
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