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ज़ाहिर मुसाफ़िरों का हुनर हो नहीं रहा - गुलज़ार बुख़ारी कविता - Darsaal

ज़ाहिर मुसाफ़िरों का हुनर हो नहीं रहा

ज़ाहिर मुसाफ़िरों का हुनर हो नहीं रहा

चल भी रहे हैं और सफ़र हो नहीं रहा

क्या हश्र है कि बारिश-ए-नैसाँ के बावजूद

पैदा किसी सदफ़ में गुहर हो नहीं रहा

सुब्ह-ए-विसाल कब से नुमूदार हो चुकी

नापैद शाम-ए-हिज्र का डर हो नहीं रहा

क़ाइल तमाम शहर तिरे ए'तिबार का

होना तो चाहिए था मगर हो नहीं रहा

बैठे हुए हैं देर से शातिर बिसात पर

मोहरा कोई इधर से उधर हो नहीं रहा

लगता है यूँ क़याम है अपना सराए में

हम जिस मकान में हैं वो घर हो नहीं रहा

मुर्दा हुए हैं लफ़्ज़ कि पत्थर समाअ'तें

ख़ामी कहीं तो है कि असर हो नहीं रहा

'गुलज़ार' सब ने पेड़ को सींचा है ख़ून से

तक़्सीम हर किसी पे समर हो नहीं रहा

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