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ज़ाब्ते और ही मिस्दाक़ पे रक्खे हुए हैं - गुलज़ार बुख़ारी कविता - Darsaal

ज़ाब्ते और ही मिस्दाक़ पे रक्खे हुए हैं

ज़ाब्ते और ही मिस्दाक़ पे रक्खे हुए हैं

आज-कल सिदक़-ओ-सफ़ा ताक़ पे रक्खे हुए हैं

वो जो ख़ुद मारका-ए-इश्क़ में उतरे भी नहीं

शिकवा पस्पाई का उश्शाक़ पे रक्खे हुए हैं

बाँध रक्खा है मोहब्बत ने अज़ल से हम को

सो तवज्जोह इसी मीसाक़ पे रक्खे हुए हैं

दख़्ल आँखों का उलझने में बहुत है लेकिन

तोहमतें सब दिल-ए-मुश्ताक़ पे रक्खे हुए हैं

जाने कब सिलसिला-ए-ख़ैर-ओ-ख़बर का हो ज़ुहूर

ध्यान हम अन्फ़ुस ओ आफ़ाक़ पे रक्खे हुए हैं

देखिए कौन सा मफ़्हूम लिया जाएगा

बात कर के नज़र इतलाक़ पे रक्खे हुए हैं

ताबिश-ए-शौक़ से अल्फ़ाज़ हैं रौशन 'गुलज़ार'

या सितारे कफ़-ए-औराक़ पे रक्खे हुए हैं

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