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तिरी उमीदों का साथ देगी इनायत-ए-बर्ग-ओ-बार कब तक - गुलज़ार बुख़ारी कविता - Darsaal

तिरी उमीदों का साथ देगी इनायत-ए-बर्ग-ओ-बार कब तक

तिरी उमीदों का साथ देगी इनायत-ए-बर्ग-ओ-बार कब तक

बहार है मेहरबान तुझ पर मगर रहेगी बहार कब तक

जलाई तू ने अगर न मशअल कोई चराग़ और ढूँड लेंगे

जिन्हें ज़रूरत है रौशनी की करेंगे वो इंतिज़ार कब तक

ख़याल-ए-तौसीअ ओ रिफ़अत-ए-बाम-ओ-दर की ख़्वाहिश बजा है लेकिन

मकान का बोझ सह सकेगी बिना-ए-ना-पाएदार कब तक

तुझे गुमाँ है कि ख़्वाब तेरे शिकस्त से मावरा हैं शायद

तुझे बचाएगा संग-बारी से आइनों का हिसार कब तक

कभी तो गुलज़ार बारिशों से चमन का माहौल साफ़ होगा

फ़ज़ा में फैलाएगा कुदूरत हवा से उड़ता ग़ुबार कब तक

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