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आईने का मुँह भी हैरत से खुला रह जाएगा - गुलज़ार बुख़ारी कविता - Darsaal

आईने का मुँह भी हैरत से खुला रह जाएगा

आईने का मुँह भी हैरत से खुला रह जाएगा

जो भी देखेगा तुझे वो देखता रह जाएगा

हम ने सब कुछ तज दिया तेरी रिफ़ाक़त के लिए

तुझ से बिछड़े तो हमारे पास क्या रह जाएगा

मिल सकेंगे किस तरह ख़्वाबों में हम जब हिज्र से

नींद हो जाएगी रुख़्सत रतजगा रह जाएगा

हम अगर तेरी रज़ा हासिल नहीं कर पाएँगे

उम्र भर हम से हमारा दिल ख़फ़ा रह जाएगा

जाने वालों की कमी पूरी कभी होती नहीं

आने वाले आएँगे फिर भी ख़ला रह जाएगा

मुर्तइश आवाज़ की लहरें रहेंगी देर तक

साज़ चुप हो जाएँगे सैल-ए-सदा रह जाएगा

'हीर' को 'गुलज़ार' ले जाएँगे खेड़े एक दिन

बाँसुरी पर तू धुनें ही छेड़ता रह जाएगा

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