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न कोई दीन होता है न कोई ज़ात होती है - गुलशन बरेलवी कविता - Darsaal

न कोई दीन होता है न कोई ज़ात होती है

न कोई दीन होता है न कोई ज़ात होती है

मोहब्बत करने वालों की निराली बात होती है

बिसात-ए-ज़ीस्त पर हम चाल चलते हैं क़रीने से

ज़रा सी चूक हो जाए तो बाज़ी मात होती है

हिक़ारत की नज़र से देखते हैं लोग महफ़िल में

ग़रीबों की भला दुनिया में क्या औक़ात होती है

बुज़ुर्गों की दुआएँ हैं जो सर झुकने नहीं देतीं

ख़ुशी और ग़म वगर्ना किस के बस की बात होती है

और उन से ये मुअ'म्मा आज तक हल हो नहीं पाया

कि दिन आता है पहले या कि पहले रात होती है

किसी ने सच कहा है इक तमाशा-गाह है दुनिया

खिलौनों की मगर चाबी ख़ुदा के हात होती है

ख़िज़ाँ का दौर हो या वो बहारों का ज़माना हो

कोई मौसम हो ऐ 'गुलशन' हमारी बात होती है

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