सफ़र का रंग हसीं क़ुर्बतों का हामिल हो
बहार बन के कोई अब तो हम-सफ़र आए
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शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है
याद करने का तुम्हें कोई इरादा भी न था
आँख में अश्क लिए ख़ाक लिए दामन में
कहिए आईना-ए-सद-फ़स्ल-ए-बहाराँ तुझ को
वो चराग़-ए-ज़ीस्त बन कर राह में जलता रहा
बग़ैर सम्त के चलना भी काम आ ही गया
हम सर-ए-राह-ए-वफ़ा उस को सदा क्या देते
आँसू भी वही कर्ब के साए भी वही हैं
दिल का हर ज़ख़्म तिरी याद का इक फूल बने
न पूछ ऐ मिरे ग़म-ख़्वार क्या तमन्ना थी
हमें भी अब दर ओ दीवार घर के याद आए
'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में न बात कर