कहिए आईना-ए-सद-फ़स्ल-ए-बहाराँ तुझ को
कितने फूलों की महक है तिरे पैराहन में
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'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में न बात कर
दिल ने इक आह भरी आँख में आँसू आए
न पूछ ऐ मिरे ग़म-ख़्वार क्या तमन्ना थी
हमारा नाम पुकारे हमारे घर आए
न साथ देगा कोई राह आश्ना मेरा
एक आँसू याद का टपका तो दरिया बन गया
दिल का हर ज़ख़्म तिरी याद का इक फूल बने
एक परछाईं तसव्वुर की मिरे साथ रहे
सफ़र का रंग हसीं क़ुर्बतों का हामिल हो
बग़ैर सम्त के चलना भी काम आ ही गया
वो चराग़-ए-ज़ीस्त बन कर राह में जलता रहा
क्या बात है क्यूँ शहर में अब जी नहीं लगता