हम सर-ए-राह-ए-वफ़ा उस को सदा क्या देते
जाने वाले ने पलट कर हमें देखा भी न था
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न साथ देगा कोई राह आश्ना मेरा
न पूछ ऐ मिरे ग़म-ख़्वार क्या तमन्ना थी
वो चराग़-ए-ज़ीस्त बन कर राह में जलता रहा
सफ़र का रंग हसीं क़ुर्बतों का हामिल हो
किन शहीदों के लहू के ये फ़रोज़ाँ हैं चराग़
कहिए आईना-ए-सद-फ़स्ल-ए-बहाराँ तुझ को
हमें भी अब दर ओ दीवार घर के याद आए
आँख में अश्क लिए ख़ाक लिए दामन में
हमारा नाम पुकारे हमारे घर आए
'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में न बात कर