हमें भी अब दर ओ दीवार घर के याद आए
जो घर में थे तो हमें आरज़ू-ए-सहरा थी
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दिल ने इक आह भरी आँख में आँसू आए
बग़ैर सम्त के चलना भी काम आ ही गया
याद करने का तुम्हें कोई इरादा भी न था
न पूछ ऐ मिरे ग़म-ख़्वार क्या तमन्ना थी
आँसू भी वही कर्ब के साए भी वही हैं
शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है
दिल का हर ज़ख़्म तिरी याद का इक फूल बने
वो चराग़-ए-ज़ीस्त बन कर राह में जलता रहा
न साथ देगा कोई राह आश्ना मेरा
कहिए आईना-ए-सद-फ़स्ल-ए-बहाराँ तुझ को
एक आँसू याद का टपका तो दरिया बन गया
किन शहीदों के लहू के ये फ़रोज़ाँ हैं चराग़