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याद करने का तुम्हें कोई इरादा भी न था - गुलनार आफ़रीन कविता - Darsaal

याद करने का तुम्हें कोई इरादा भी न था

याद करने का तुम्हें कोई इरादा भी न था

और तुम्हें दिल से भुला दें ये गवारा भी न था

हर तरफ़ तपती हुई धूप थी ऐ उम्र-ए-रवाँ

दूर तक दश्त-ए-अलम में कोई साया भी न था

मिशअल-ए-जाँ भी जलाई न गई थी हम से

और पलकों पे शब-ए-ग़म कोई तारा भी न था

हम सर-ए-राह-ए-वफ़ा उस को सदा क्या देते

जाने वाले ने पलट कर हमें देखा भी न था

हो गई ख़त्म सराबों में भटकती हुई ज़ीस्त

दिल में हसरत ही रही दश्त में दरिया भी न था

किस ख़मोशी से जला दामन-ए-दिल ऐ 'गुलनार'

कोई शोला भी न था कोई शरारा भी न था

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