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शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है - गुलनार आफ़रीन कविता - Darsaal

शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है

शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है

जो दर्द है वो रूह की गहराइयों में है

जिस को कभी ख़याल का पैकर न मिल सका

वो अक्स मेरे ज़ेहन की रानाइयों में है

कल तक तो ज़िंदगी थी तमाशा बनी हुई

और आज ज़िंदगी भी तमाशाइयों में है

है किस लिए ये वुसअत-ए-दामान-ए-इल्तिफ़ात

दिल का सुकून तो इन्ही तन्हाइयों में है

ये दश्त-ए-आरज़ू है यहाँ एक एक दिल

तुझ को ख़बर भी है तिरे सौदाइयों में है

तन्हा नहीं है ऐ शब-ए-गिर्यां दिए की लौ

यादों की एक शाम भी परछाइयों में है

'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में न बात कर

वो ज़हर पी के देख जो सच्चाइयों में है

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