यार गर पूछे तो कीजे कुछ अर्ज़
बात पर बात कही जाती है
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कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है
शब-ए-हिज्र में एक दिन देखना
महज़ूँ न हो 'हुज़ूर' अब आता है यार अपना
इश्क़ में ख़ूब नीं बहुत रोना
बहार इस धूम से आई गई उम्मीद जीने की
टुक देखियो ये अबरू-ए-ख़मदार वही है
आइना है ये जहाँ इस में जमाल अपना है
कब इस जी की हालत कोई जानता है
देखना ज़ोर ही गाँठा है दिल-ए-यार से दिल
उस शोख़ से क्या कीजिए इज़्हार-ए-तमन्ना
करूँ क़त्-ए-उल्फ़त बुतों से व-लेकिन
गर शैख़ अज़्म-ए-मंज़िल-ए-हक़ है तो आ इधर