नाचार है दिल ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर के आगे
दीवाने का क्या चलता है ज़ंजीर के आगे
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हर शजर के तईं होता है समर से पैवंद
यार गर पूछे तो कीजे कुछ अर्ज़
आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए
उस शोख़ से क्या कीजिए इज़्हार-ए-तमन्ना
इश्क़ ने सामने होते ही जलाया दिल को
जहाँ में कहाँ बाहम उल्फ़त रही है
इश्क़ में दर्द से है हुर्मत-ए-दिल
आज़ुर्दा कुछ हैं शायद वर्ना हुज़ूर मुझ से
ग़ैर वफ़ा में पुख़्ता हैं यूँ ही सही प मुझ सा भी
मुझ से मुड़ने की नीं किसी रू से
कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है
तुझ बिन इक दल हो पास रहता है