कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है
मैं अपने बुत का बरहमन हूँ साफ़ तो ये है
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जो जी चाहे है देखूँ माह-ए-नौ कहता है दिल मेरा
आँखों का ख़ुदा ही है ये आँसू की है गर मौज
हैं शैख़ ओ बरहमन तस्बीह और ज़ुन्नार के बंदे
शब-ए-हिज्र में एक दिन देखना
आज़ुर्दा कुछ हैं शायद वर्ना हुज़ूर मुझ से
अश्क आँखों के अंदर न रहा है न रहेगा
उम्र गई उल्फ़त-ए-ज़र जी से इलाही न गई
आइना है ये जहाँ इस में जमाल अपना है
करूँ क़त्-ए-उल्फ़त बुतों से व-लेकिन
गुल-एज़ार और भी यूँ रखते हैं रंग और नमक
है अफ़्सोस ऐ उम्र जाने का तेरे
क्या रफ़ू करने लगा है जा भी नादाँ यक तरफ़