कभी हाथ भी आएगा यार सच कह
या यूँही तू बातें बनाता रहेगा
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देखना ज़ोर ही गाँठा है दिल-ए-यार से दिल
इश्क़ ने सामने होते ही जलाया दिल को
हैं शैख़ ओ बरहमन तस्बीह और ज़ुन्नार के बंदे
हर कोई अपनी फ़हम-ए-नाक़िस में
शजर बाग़-ए-जहाँ का था जहाँ तक सब समर लाया
तुझ बिन इक दल हो पास रहता है
बा'द-ए-मकीं मकाँ का गर बाम रहा तो क्या हुआ
हाजी तू तो राह को भूला मंज़िल को कोई पहुँचे है
करूँ क़त्-ए-उल्फ़त बुतों से व-लेकिन
बहार इस धूम से आई गई उम्मीद जीने की
जहाँ में कहाँ बाहम उल्फ़त रही है
महज़ूँ न हो 'हुज़ूर' अब आता है यार अपना