जो जी चाहे है देखूँ माह-ए-नौ कहता है दिल मेरा
इधर क्या देखता है अबरू-ए-ख़मदार के बंदे
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उम्र गई उल्फ़त-ए-ज़र जी से इलाही न गई
कब इस जी की हालत कोई जानता है
दिल ब-अज़-काबा है याराँ जुब्बा-साई चाहिए
गुल-एज़ार और भी यूँ रखते हैं रंग और नमक
कभी हाथ भी आएगा यार सच कह
आइना है ये जहाँ इस में जमाल अपना है
आँखों से इसी तरह अगर सैल रवाँ है
ग़ैर वफ़ा में पुख़्ता हैं यूँ ही सही प मुझ सा भी
उस शोख़ से क्या कीजिए इज़्हार-ए-तमन्ना
आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए
तुझ बिन इक दल हो पास रहता है
शजर बाग़-ए-जहाँ का था जहाँ तक सब समर लाया