इश्क़ में ख़ूब नीं बहुत रोना
इस से इफ़शा-ए-राज़ होता है
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हाजी तू तो राह को भूला मंज़िल को कोई पहुँचे है
अश्क आँखों के अंदर न रहा है न रहेगा
हर शजर के तईं होता है समर से पैवंद
आँखों का ख़ुदा ही है ये आँसू की है गर मौज
गर शैख़ अज़्म-ए-मंज़िल-ए-हक़ है तो आ इधर
आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए
है अफ़्सोस ऐ उम्र जाने का तेरे
शब-ए-हिज्र में एक दिन देखना
ग़ैर वफ़ा में पुख़्ता हैं यूँ ही सही प मुझ सा भी
तुझ बिन इक दल हो पास रहता है
जो जी चाहे है देखूँ माह-ए-नौ कहता है दिल मेरा
यार गर पूछे तो कीजे कुछ अर्ज़