इश्क़ में दर्द से है हुर्मत-ए-दिल
चश्म को आबरू है आँसू से
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Anwar Masood
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देखना ज़ोर ही गाँठा है दिल-ए-यार से दिल
कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है
शजर बाग़-ए-जहाँ का था जहाँ तक सब समर लाया
अबस घर से अपने निकाले है तू
आइना है ये जहाँ इस में जमाल अपना है
जो यूँ आप बैरून-ए-दर जाएँगे
क्या रफ़ू करने लगा है जा भी नादाँ यक तरफ़
ग़ैर आए पीछे पा गए मुजरे का बार पहले
तुझ बिन इक दल हो पास रहता है
ग़ैर वफ़ा में पुख़्ता हैं यूँ ही सही प मुझ सा भी
ये दिल ही जल्वा-गाह है उस ख़ुश-ख़िराम का
हैं शैख़ ओ बरहमन तस्बीह और ज़ुन्नार के बंदे