गर शैख़ अज़्म-ए-मंज़िल-ए-हक़ है तो आ इधर
है दिल की राह सीधी व का'बे की राह कज
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हर शजर के तईं होता है समर से पैवंद
जो यूँ आप बैरून-ए-दर जाएँगे
अदा को तिरी मेरा जी जानता है
कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है
हैं शैख़ ओ बरहमन तस्बीह और ज़ुन्नार के बंदे
मुझ से मुड़ने की नीं किसी रू से
आज़ुर्दा कुछ हैं शायद वर्ना हुज़ूर मुझ से
इश्क़ ने सामने होते ही जलाया दिल को
आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए
और रब्त जिसे कुफ़्र से है या'नी बरहमन
उम्र गई उल्फ़त-ए-ज़र जी से इलाही न गई
कभी हाथ भी आएगा यार सच कह