बहार इस धूम से आई गई उम्मीद जीने की
गरेबाँ फट चुका कुइ दम में अब नौबत ही सीने की
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उम्र गई उल्फ़त-ए-ज़र जी से इलाही न गई
आज़ुर्दा कुछ हैं शायद वर्ना हुज़ूर मुझ से
है अफ़्सोस ऐ उम्र जाने का तेरे
ग़ैर आए पीछे पा गए मुजरे का बार पहले
जो जी चाहे है देखूँ माह-ए-नौ कहता है दिल मेरा
गुल-एज़ार और भी यूँ रखते हैं रंग और नमक
और रब्त जिसे कुफ़्र से है या'नी बरहमन
ग़ैर वफ़ा में पुख़्ता हैं यूँ ही सही प मुझ सा भी
यूँ तो दिल हर कदाम रखता है
ये दिल ही जल्वा-गाह है उस ख़ुश-ख़िराम का
दीन ओ दुनिया का जो नहीं पाबंद
कब इस जी की हालत कोई जानता है