उम्र गई उल्फ़त-ए-ज़र जी से इलाही न गई
उम्र गई उल्फ़त-ए-ज़र जी से इलाही न गई
मू सफ़ेद हो गए पर दिल की सियासी न गई
जी में ठाना था कि हम हिज्र में जीने के नहीं
मर गए आह ये बात हम से निबाही न गई
उम्र गई हिज्र में दिल करता है मज़कूर-ए-विसाल
बात अब तक यही दीवाने की वाही न गई
जी गवारा नहीं करता कि करूँ मिन्नत-ए-ख़ल्क़
हो गए गरचे गदा दिल से वो शाही न गई
दुख़्तर-ए-रज़ से फ़क़त में नहीं महफ़ूज़ 'हुज़ूर'
कौन मज्लिस है कि जिस में ये सराही न गई
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