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बा'द-ए-मकीं मकाँ का गर बाम रहा तो क्या हुआ - ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

बा'द-ए-मकीं मकाँ का गर बाम रहा तो क्या हुआ

बा'द-ए-मकीं मकाँ का गर बाम रहा तो क्या हुआ

आप ही जब रहे नहीं नाम रहा तो क्या हुआ

चश्म से क्या है फ़ाएदा दिल में न हो जो ज़ौक़-ए-दीद

शीशे में मय न जब रहे जाम रहा तो क्या हुआ

हम से ग़रीब भी भला मुजरे के बारयाब हों

इज़्न तेरा कभी कभी आम रहा तो क्या हुआ

ग़ैर-ए-वफ़ा में पुख़्ता हैं यूँ ही सही प मुझ सा भी

एक तिरी जनाब में ख़ाम रहा तो क्या हुआ

रम तो तिरा सभों से है ऐ बुत-ए-मन हिरन भला

अपने 'हुज़ूर' से कभी राम रहा तो क्या हुआ

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