बा'द-ए-मकीं मकाँ का गर बाम रहा तो क्या हुआ
बा'द-ए-मकीं मकाँ का गर बाम रहा तो क्या हुआ
आप ही जब रहे नहीं नाम रहा तो क्या हुआ
चश्म से क्या है फ़ाएदा दिल में न हो जो ज़ौक़-ए-दीद
शीशे में मय न जब रहे जाम रहा तो क्या हुआ
हम से ग़रीब भी भला मुजरे के बारयाब हों
इज़्न तेरा कभी कभी आम रहा तो क्या हुआ
ग़ैर-ए-वफ़ा में पुख़्ता हैं यूँ ही सही प मुझ सा भी
एक तिरी जनाब में ख़ाम रहा तो क्या हुआ
रम तो तिरा सभों से है ऐ बुत-ए-मन हिरन भला
अपने 'हुज़ूर' से कभी राम रहा तो क्या हुआ
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