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आँखों का ख़ुदा ही है ये आँसू की है गर मौज - ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

आँखों का ख़ुदा ही है ये आँसू की है गर मौज

आँखों का ख़ुदा ही है ये आँसू की है गर मौज

कश्ती बचे क्यूँकर जो रहे आठ पहर मौज

ऐ बहर न तू इतना उमँड चल मिरे आगे

रो रो के डुबा दूँगा कभी आ गई गर मौज

पहुँचा नहीं गर तेरा क़दम ता-लब-ए-दरिया

साहिल से पटक सर को है क्यूँ ख़ाक-ब-सर मौज

गर आलम-ए-आब इस का कमीं-गाह नहीं है

क्यूँ ताइर-ए-बिस्मिल की तरह मारे है पर मौज

उठते नहीं साहिल की मिसाल अपने मकाँ से

दरिया की तरह मारते हैं अपने ही घर मौज

क्या पूछते हो अश्क के दरिया का तलातुम

जाती है नज़र जिस तरफ़ आती है नज़र मौज

गर नहिं है 'हुज़ूर' उस को हवस दीद की उस के

क्यूँ खोले हबाबों से है यूँ दीदा-ए-तर मौज

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