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आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए - ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए

आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए

रखनी सदा चश्म को तर चाहिए

दिल तो तुझे दे ही चुके जान भी

लीजिए हाज़िर है अगर चाहिए

यार मिले या न मिले सुब्ह-ओ-शाम

कूचा-ए-जानाँ में गुज़र चाहिए

नाम भी नम का न रहा चश्म में

अब तू गिर्ये लख़्त-ए-जिगर चाहिए

तीर-ए-निगह वो है कि जिस तीर के

सामने होने को जिगर चाहिए

अब की बचे जी तो किसू के तईं

फिर न कहें बार-ए-दिगर चाहिए

दिल भी जवाहर है व-लेकिन हुज़ूर

इस के परखने को नज़र चाहिए

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