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ज़िंदगी इश्क़-ओ-मोहब्बत से जवाँ होती है - ग़ुलाम नबी हकीम कविता - Darsaal

ज़िंदगी इश्क़-ओ-मोहब्बत से जवाँ होती है

ज़िंदगी इश्क़-ओ-मोहब्बत से जवाँ होती है

वर्ना बे-कैफ़ सी बे-ताब-ओ-तवाँ होती है

इश्क़ की लौ से जो रौशन रग-ए-जाँ होती है

शम्अ बन जाती है बे-इश्क़ धुआँ होती है

कौन हम जैसों को इस मय का पता देता है

पहले कुछ लोग बताते थे कि हाँ होती है

हाव-हू शोर जो हम सुनते हैं मय-ख़ाने में

मय-गुसारों के लिए बांग-ए-अज़ाँ होती है

इक न इक नासेह-ए-मुश्फ़िक़ भी टपक पड़ता है

मय-गुसारी की कोई बात जहाँ होती है

ऐ 'हकीम' आओ वो मय-ख़ाना खुला रहता है

अस्ल मय साक़ी-ए-कौसर के वहाँ होती है

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