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तू अंग अंग में ख़ुश्बू सी बन गया होगा - गुलाम जीलानी असग़र कविता - Darsaal

तू अंग अंग में ख़ुश्बू सी बन गया होगा

तू अंग अंग में ख़ुश्बू सी बन गया होगा

मैं सोचता हूँ कि तुझ से गुरेज़ क्या होगा

तमाम रात मिरे दिल से आँच आती रही

कहीं क़रीब कोई शहर जल रहा होगा

तू मेरे साथ भी रह कर मिरे क़रीब न था

अब इस से और फ़ुज़ूँ फ़ासला भी क्या होगा

मुझे ख़ुद अपनी वफ़ा पर भी ए'तिमाद नहीं

कभी तो तू भी मिरी तरह सोचता होगा

कभी तो संग-ए-मलामत कहीं से आएगा

कोई तो शहर में अपना भी आश्ना होगा

ज़रा सी बात पे क्या दोस्तों के मुँह आएँ

ग़रीब दिल था मुरव्वत में जल-बुझा होगा

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