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मिले भी दोस्त तो इस तर्ज़-ए-बे-दिली से मिले - गुलाम जीलानी असग़र कविता - Darsaal

मिले भी दोस्त तो इस तर्ज़-ए-बे-दिली से मिले

मिले भी दोस्त तो इस तर्ज़-ए-बे-दिली से मिले

कि जैसे अजनबी कोई इक अजनबी से मिले

क़दम क़दम पे ख़ुलूस-ए-वफ़ा का ज़िक्र किया

अदू मिले भी तो किस हुस्न-ए-सादगी से मिले

सितम करो भी तो अंदाज़-ए-मुंसिफ़ी से करो

कोई सलीक़ा तो उन्वान-ए-दोस्ती से मिले

तिरी तलाश में निकले थे तेरे दीवाने

हर एक मोड़ पे ख़ुद अपनी ज़िंदगी से मिले

वो लोग अपनी ही ज़ंजीर-ए-पा के क़ैदी हैं

जिन्हें निशान-ए-सफ़र भी तिरी गली से मिले

चलो कि तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की बात ख़त्म हुई

न तुम ख़ुशी से मिले हो न हम ख़ुशी से मिले

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