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मैं ग़र्क़ वहाँ प्यास के पैकर की तरह था - गुहर खैराबादी कविता - Darsaal

मैं ग़र्क़ वहाँ प्यास के पैकर की तरह था

मैं ग़र्क़ वहाँ प्यास के पैकर की तरह था

हर क़तरा जहाँ एक समुंदर की तरह था

घर सारे शिकस्ता थे गुज़र-गाहें अँधेरी

कुछ शहर मिरा मेरे मुक़द्दर की तरह था

आज उस का जहाँ में कोई पुरसाँ ही नहीं है

कल तक जो ज़माने में सिकंदर की तरह था

था इस के मुक़द्दर में लिखा डूबना डूबा

हालाँकि वो दरिया में शनावर की तरह था

क्या मेरी हक़ीक़त थी गुलिस्ताँ में न पूछो

मैं था मगर इक ताइर-ए-बे-पर की तरह था

जब शहर में पत्थर ही की थी उम्र गँवाई

दुनिया में तुझे जीना भी आज़र की तरह था

दिल के भी ज़माने में बदलते रहे अंदाज़

दरिया की तरह था कभी पत्थर की तरह था

दुनिया-ए-अदब में सभी कहते हैं जिसे 'मीर'

इक लफ़्ज़-ओ-मआ'नी के समुंदर की तरह था

रास आई 'गुहर' ख़ूब मुझे दश्त-नवर्दी

हर आबला-ए-पा मिरा गौहर की तरह था

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