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दिल के दामन में जो सरमाया-ए-अफ़्कार न था - गुहर खैराबादी कविता - Darsaal

दिल के दामन में जो सरमाया-ए-अफ़्कार न था

दिल के दामन में जो सरमाया-ए-अफ़्कार न था

ज़िंदगी थी मगर उस का कोई मेआ'र न था

जाने क्यूँ बात मिरी उन को गिराँ-बार हुई

लफ़्ज़ ऐसा तो कोई शामिल-ए-गुफ़्तार न था

कौन सुनता मिरी किस को मैं सदाएँ देता

ऐसी ग़फ़लत थी कि एहसास भी बेदार न था

हर तरफ़ धूप थी फैली हुई उर्यानी की

सर छुपाने को कहीं साया-ए-किरदार न था

आसमाँ चीर के रख देती सदारत मेरी

वो तो कहिए कोई दुश्मन पस-ए-दीवार न था

ज़हर का घूँट बिल-आख़िर उसे पीना ही पड़ा

बात ये थी वो ज़माने का तरफ़-दार न था

उस की बेगाना-रवी से उसे समझा मैं ने

तिश्ना-ए-ख़ून-ए-वफ़ा था करम-ए-आसार न था

जिस को देखा वो हक़ाएक़ पे था पर्दा डाले

आईना-दार-ए-हक़ीक़त कोई किरदार न था

ए'तिबार-ए-दिल-ए-पुर-शौक़ भी पैदा करते

काम आने का फ़क़त जज़्बा-ए-ईसार न था

काम आँखों से न लेते तो भला क्या करते

दर्द पिन्हाँ थे बहुत पर लब-ए-इज़हार न था

सरफ़राज़ी मिरी क़िस्मत में न थी वर्ना 'गुहर'

नोक-ए-नेज़ा पे पहुँचना कोई दुश्वार न था

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