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दर्द-ए-दिल के साथ क्या मेरे मसीहा कर दिया - गुहर खैराबादी कविता - Darsaal

दर्द-ए-दिल के साथ क्या मेरे मसीहा कर दिया

दर्द-ए-दिल के साथ क्या मेरे मसीहा कर दिया

बे-क़रारी बढ़ गई है जब से अच्छा कर दिया

क्या अजब थी उन के पाकीज़ा तबस्सुम की किरन

क़ल्ब की तारीक बस्ती में उजाला कर दिया

जब न उन के राज़-ए-वहशत तक पहुँच पाई नज़र

होश वालों ने जुनूँ वालों को रुस्वा कर दिया

नफ़रतों की हद बना कर अपने मेरे दरमियाँ

वो भी तन्हा रह गए मुझ को भी तन्हा कर दिया

अब तो हद से बढ़ गई थीं अपने दिल की उलझनें

मुस्कुरा कर आप ने ग़म का मुदावा कर दिया

हर-नफ़स बाद-ए-सहर की तरह मौजें ले उठा

क्या किसी ने उन की आमद का इशारा कर दिया

देख कर साक़ी की मस्ताना निगाही ऐ 'गुहर'

ज़िंदगी को हम ने वक़्फ़-ए-जाम-ओ-मीना कर दिया

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