चराग़ से कभी तारों से रौशनी माँगे
चराग़ से कभी तारों से रौशनी माँगे
अँधेरी रात भी किस किस से ज़िंदगी माँगे
जलाने वाले जलाते हैं नफ़रतों के चराग़
फ़ज़ा-ए-वक़्त मोहब्बत की रौशनी माँगे
वो ना-शनास-ए-हक़ीक़त है इस ज़माना में
वफ़ा को भीक समझ कर गली गली माँगे
निशात-ओ-रंज मुक़द्दर की बात होती है
किसी से ग़म न किसी से कोई ख़ुशी माँगे
हर एक शख़्स में अंदाज़-ए-कज-अदाई है
मगर ये दिल है कि रह रह के दोस्ती माँगे
जहाँ सुरों की हक़ीक़त न हो वहाँ पे 'गुहर'
जो कोई माँगे तो क्या ताज-ए-ख़ुसरवी माँगे
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