ज़ोफ़ से रहता है अब पाँव पे सर
आप-अपनी ठोकरें खाते हैं हम
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सख़्त है हैरत हमें जो ज़ेर-ए-अबरू ख़ाल है
दिमाग़ और ही पाती हैं इन हसीनों में
किस नाज़ से वाह हम को मारा
जो पिन्हाँ था वही हर सू अयाँ है
तुम वफ़ा का एवज़ जफ़ा समझे
नहीं बचता है बीमार-ए-मोहब्बत
गर हमारे क़त्ल के मज़मूँ का वो नामा लिखे
उल्फ़त ये छुपाएँ हम किसी की
न होगा कोई मुझ सा महव-ए-तसव्वुर
क़त्ल उश्शाक़ किया करते हैं
अपना हर उज़्व चश्म-ए-बीना है
किस क़दर मुझ को ना-तवानी है