हर गाम पे ही साए से इक मिस्रा-ए-मौज़ूँ
गर चंद क़दम चलिए तो क्या ख़ूब ग़ज़ल हो
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नहीं बचता है बीमार-ए-मोहब्बत
हसरत ऐ जाँ शब-ए-जुदाई है
बिजली चमकी तो अब्र रोया
क़त्ल उश्शाक़ किया करते हैं
ख़ून मिरा कर के लगाना न हिना मेरे ब'अद
तुम वफ़ा का एवज़ जफ़ा समझे
लब-ए-जाँ-बख़्श पे दम अपना फ़ना होता है
हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा
ठुकरा के चले जबीं को मेरी
नासेहा आशिक़ी में रख मा'ज़ूर
दुआएँ माँगीं हैं मुद्दतों तक झुका के सर हाथ उठा उठा कर