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ये इक तेरा जल्वा सनम चार सू है - गोया फ़क़ीर मोहम्मद कविता - Darsaal

ये इक तेरा जल्वा सनम चार सू है

ये इक तेरा जल्वा सनम चार सू है

नज़र जिस तरफ़ कीजिए तू ही तू है

ये किस मस्त के आने की आरज़ू है

कि दस्त-ए-दुआ आज दस्त-ए-सुबू है

न होगा कोई मुझ सा महव-ए-तसव्वुर

जिसे देखता हूँ समझता हूँ तू है

मुकद्दर न हो यार तो साफ़ कह दूँ

न क्यूँकर हो ख़ुद-बीं कि आईना-रू है

कभी रुख़ की बातें कभी गेसुओं की

सहर से यही शाम तक गुफ़्तुगू है

किसी गुल के कूचे से गुज़री है शायद

सबा आज जो तुझ में फूलों की बू है

नहीं चाक-दामन कोई मुझ सा 'गोया'

न बख़िया की ख़्वाहिश न फ़िक्र-ए-रफ़ू है

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