नज़्ज़ारा-ए-रुख़-ए-साक़ी से मुझ को मस्ती है
नज़्ज़ारा-ए-रुख़-ए-साक़ी से मुझ को मस्ती है
ये आफ़्ताब परस्ती भी मय-परस्ती है
ख़ुदा को भूल गया महव-ए-ख़ुद-परस्ती है
तू और काम में है मौत तुझ पे हस्ती है
न गुल हैं अब न वो साक़ी न मय-परस्ती है
चमन में मेंह के एवज़ बे-कसी बरसती है
ये मुल्क-ए-हुस्न भी जानाँ अजीब बस्ती है
कि दिल सी चीज़ यहाँ कौड़ियों से सस्ती है
मह-ए-सियाम में गो मनअ-ए-मय-परस्ती है
मगर हूँ मस्त कि हर रोज़ फ़ाक़ा-मस्ती है
ये बे-सबात बहार-ए-रियाज़-ए-हस्ती है
कली जो चटकी तो हस्ती पर अपनी हँसती है
बस एक रात का मेहमान चराग़-ए-हस्ती है
सिरहाने रोएगी अब शम्अ गोर हँसती है
दिला ये गोर-ए-ग़रीबाँ भी ज़ोर बस्ती है
बजाए अब्र यहाँ बे-कसी बरसती है
गया जो याँ से तह-ए-ख़ाक वो कभी न फिरा
ज़मीन के नीचे भी दिलचस्प कोई बस्ती है
नहा के बाल निचोड़े तो यार कहने लगा
घटा सियाह इसी तरह से बरसती है
बस एक हाथ में दो टुकड़े कर दिया हम को
हमारे यार की इक ये भी तेज़-दस्ती है
किया है चाक गरेबान सुब्ह-ए-महशर तक
ये अपने जोश-ए-जुनूँ की दराज़-दस्ती है
हमें तो क़त्ल किया बस इसी नज़ाकत ने
कि वो उठाती हैं तेग़ और नहीं उकसती है
दिखा के फूल से चेहरे को दिल लिया ख़ुश हो
जो बदले गुल के मिले अंदलीब सस्ती है
अब एक तौबा पे आती है मग़फ़िरत तिरे हाथ
ख़रीद कर कि निहायत ये जिंस सस्ती है
दिखाए जिस ने ये सूरत हमें दम-ए-आख़िर
उसी को देखने को रूह अब तरसती है
न टूटी शीशा-ए-मय मेरी संग-ए-मर्क़द से
पस अज़ फ़ना भी मुझे पास-ए-मय-परस्ती है
असीर कर के हमें ख़ुश न होइयो सय्याद
कि तू भी याँ तो गिरफ़्तार-ए-दाम-ए-हस्ती है
अजब नहीं दम-ए-ईसा से भी जो गुल हो जाते
कि शम-ए-सुब्ह हमारा चराग़-ए-हस्ती है
वो माँगता है मिरी जान रू-नुमाई में
यही जो मोल है तो जिंस-ए-हुस्न सस्ती है
किया है उस ने तो यूसुफ़ का चाक दामन-ए-पाक
न पूछो इश्क़ की जो कुछ दराज़-दस्ती है
कहूँ मैं वही है साक़ी वही सुबू वही जाम
मुदाम-ए-बादा-ए-वहदत की मुझ को मस्ती है
अलम है तेग़-ए-दो-दम तैरे सर झुकाए हूँ मैं
तिरी गली में भी ज़ालिम बुलंदी पस्ती है
जो चाहे रहमत-ए-हक़ इज्ज़ कर शिआर अपना
रवाँ उधर को है पानी जिधर को पस्ती है
सफ़ेद हो गई मू-ए-सियाह ग़फ़लत छोड़
हुई है सुब्ह कोई दम चराग़ हस्ती है
हर इक जवान का क़द ख़म हुआ है पीरी से
मआल-ए-कार बुलंदी जहाँ में पस्ती है
वो अपनी जुम्बिश-ए-अबरू दिखा के कहता है
ये वो है तेग़ इशारों ही से जो कसती है
चे ख़ुश बवद कि बर आयेद बेक करिश्मा दो कार
सनम बग़ल में है दिल महव-ए-हक़-परस्ती है
है ख़ूब पहले से 'गोया' करूँ मैं तर्क-ए-सुख़न
कि एक दम में ये ख़ामोश शम-ए-हस्ती है
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