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मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ - गोया फ़क़ीर मोहम्मद कविता - Darsaal

मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ

मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ

इक पर्दा-नशीं का मुब्तला हूँ

क्या हिज्र में ना-तवाँ हुआ हूँ

तिनका न उठे वो कहरुबा हूँ

तेरी सी न बू किसी में पाई

सारे फूलों को सूँघता हूँ

बुलबुल है चमन में एक हमदर्द

मैं भी किसी गुल का मुब्तला हूँ

आईना है जिस्म-ए-साफ़ उस का

क्यूँकर न कहे मैं ख़ुद-नुमा हूँ

कहता है ये मुश्तरी फ़लक पर

यूसुफ़ तिरे हाथ में बिका हूँ

रुख़्सार वो रख के सो गया था

गुल तकयों को रोज़ सूँघता हूँ

ख़त लिख के जो है तलाश-ए-क़ासिद

मानिंद क़लम मैं फिर रहा हूँ

मर जान कही देख देख वो हाथ

मेहंदी की तरह मैं पिस गया हूँ

इतनी तू जफ़ाएँ कर न ऐ बुत

आख़िर मैं बंदा-ए-ख़ुदा हूँ

अब तो मुझे ग़ैब-दाँ कहें सब

मैं तेरी कमर को देखता हूँ

'गोया' हूँ वक़्त का सुलेमाँ

परियों पर हुक्म कर रहा हूँ

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