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किस क़दर मुझ को ना-तवानी है - गोया फ़क़ीर मोहम्मद कविता - Darsaal

किस क़दर मुझ को ना-तवानी है

किस क़दर मुझ को ना-तवानी है

बार-ए-सर से भी सरगिरानी है

चश्म-ए-तर से जो ख़ूँ-फ़िशानी है

नावक-ए-इश्क़ की निशानी है

सारे क़ुरआन से उस परी-रू को

याद इक लफ़्ज़-ए-लन-तरानी है

जब हुआ रुत्बा-ए-फ़ना फ़िल्लाह

ग़म नहीं गर जहान-ए-फ़ानी है

है हर इक शेर यार की तस्वीर

फ़िक्र अपनी ख़याल-ए-मानी है

क्यूँ न हों आशिक़-ए-लब-ए-जानाँ

चश्मा-ए-आब-ए-ज़िंदगानी है

उस की रफ़्तार के लिखे हैं जो वस्फ़

क्या मिरी तब्अ में आती है

नासेहा आशिक़ी में रख मअज़ूर

क्या करूँ आलम जवानी है

किस से दूँ उस सनम को मैं तश्बीह

कब ख़ुदाई में उस का सानी है

न मिरी ज़ख़्म पर रखो मरहम

मेरे क़ातिल की ये निशानी है

सर कटाएँगे शम्अ साँ ख़ामोश

गर यही अपनी बे-ज़बानी है

हम नहीं शम्अ हों जो अश्क-फ़िशाँ

कार-ए-उश्शाक़ जाँ-फ़िशानी है

मुँह ने घर में मिरे रक्खा उस को

ये भी ताईद-ए-आसमानी है

दिल भी उस से उठा नहीं सकते

ना-तवानी सी ना-तवानी है

क़द-ए-मौज़ूँ के इश्क़ में 'गोया'

रात दिन शुग़्ल-ए-शेर-ख़्वानी है

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