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किस नाज़ से वाह हम को मारा - गोया फ़क़ीर मोहम्मद कविता - Darsaal

किस नाज़ से वाह हम को मारा

किस नाज़ से वाह हम को मारा

की तिरछी निगाह हम को मारा

सौ पेच में ला के आख़िर-ए-कार

ऐ ज़ुल्फ़-ए-सियाह हम को मारा

ख़्वाहिंदा तिरे थे ऐ परी हम

क्यूँ ख़्वाह-न-ख़्वाह हम को मारा

का'बे को जो हम चले बुतों ने

कह कर गुमराह हम को मारा

शिकवा हमें कुछ नहीं फ़लक से

तू ने ऐ माह हम को मारा

चाह-ए-ज़क़न-ए-सनम दिखा कर

तू ने ऐ चाह हम को मारा

ऐसे हैं ज़ईफ़ मर गए हम

जिस ने पर-ए-काह हम को मारा

उस की ज़ुल्फ़-ए-दराज़ ने शब

क़िस्सा-ए-कोताह हम को मारा

शमशीर-ए-निगह से उस ने बे-मौत

ख़ालिक़ है गवाह हम को मारा

बोसे की तलब में उस ने 'गोया'

ना-कर्दा-गुनाह हम को मारा

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