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हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा - गोया फ़क़ीर मोहम्मद कविता - Darsaal

हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा

हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा

हाथ जो होगा तो मिरी मौत का सामाँ होगा

साक़िया हिज्र में मय-ख़ाना बयाबाँ होगा

दौर-ए-साग़र भी रम-ए-चश्म-ए-ग़ज़ालाँ होगा

ऐ जुनूँ फिर मुझे ख़ुश आने लगी उर्यानी

अब न दामन ही रहेगा न गरेबाँ होगा

फिर चलेंगे तिरा क़द देख के गुलज़ारों में

फिर हर इक सर्व-ओ-समन सर्व-ए-चराग़ाँ होगा

घर में दिल फिर मिरा घबराने लगा आप से आप

ऐ जुनूँ फिर ये मकाँ ख़ाना-ए-ज़िंदाँ होगा

फिर ख़ुश आती है मिरे दिल को शब-ए-माह की सैर

इश्क़ फिर चाँद से मुखड़े का दो-चंदाँ होगा

इन दिनों फिर तुझे 'गोया' जो है चुपकी सी लगी

फिर इरादा तरफ़-ए-मुल्क-ए-ख़मोशाँ होगा

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