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सँभल के रहिएगा ग़ुस्से में चल रही है हवा - गोविन्द गुलशन कविता - Darsaal

सँभल के रहिएगा ग़ुस्से में चल रही है हवा

सँभल के रहिएगा ग़ुस्से में चल रही है हवा

मिज़ाज गर्म है मौसम बदल रही है हवा

वो जाम बर्फ़ से लबरेज़ है मगर उस से

लिपट लिपट के मुसलसल पिघल रही है हवा

इधर तो धूप है बंदिश में और छतों पे उधर

लिबास बर्फ़ का पहने टहल रही है हवा

बुझा रही है चराग़ों को वक़्त से पहले

न जाने किस के इशारों पे चल रही है हवा

जो दिल पे हाथ रखोगे तो जान जाओगे

मचल रही है बराबर मचल रही है हवा

मैं कह रहा हूँ हवा है तो जल रहे हैं चराग़

वो कह रहे हैं चराग़ों से जल रही है हवा

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