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जब मिली उन से नज़र मिटने का सामाँ हो गया - गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम कविता - Darsaal

जब मिली उन से नज़र मिटने का सामाँ हो गया

जब मिली उन से नज़र मिटने का सामाँ हो गया

ऐ क़ज़ा ख़ुश हो तिरा अब काम आसाँ हो गया

दिलरुबा मा'लूम होती हैं मुझे तन्हाइयाँ

नक़्श हर शय का मुझे तस्वीर-ए-जानाँ हो गया

मेरी ख़्वाहिश थी कि लूटूँ लज़्ज़त-ए-दुनिया मगर

वुसअत-ए-हिर्स-ओ-हवा से तंग दामाँ हो गया

बढ़ रही हैं क़ीमतें हर चीज़ की बाज़ार में

एक ऐसा ग़म है जो अब और अर्ज़ां हो गया

शोमी-ए-क़िस्मत कहें या ख़सलत-ए-इंसाँ इसे

आ के क़ाबिज़ बज़्म-ए-हस्ती पर ये मेहमाँ हो गया

शो'ला-ज़न है दिल यहाँ तो दाग़-हा-ए-रंज से

और वो कहते हैं ख़ुश हो कर चराग़ाँ हो गया

देख कर चारों तरफ़ आसार-ए-ग़म आह-ओ-फ़ुग़ाँ

क्या करूँ 'मग़मूम' दिल मेरा हिरासाँ हो गया

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