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गिला क्या करूँ ऐ फ़लक बता मिरे हक़ में जब ये जहाँ नहीं - गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम कविता - Darsaal

गिला क्या करूँ ऐ फ़लक बता मिरे हक़ में जब ये जहाँ नहीं

गिला क्या करूँ ऐ फ़लक बता मिरे हक़ में जब ये जहाँ नहीं

कहूँ कैसे हाल-ए-दिल उन से मैं मिरी हिलती तक ये ज़बाँ नहीं

ये भँवर हैं बहर-ए-हयात के मैं हूँ ख़स्ता-हाल-ओ-शिकस्ता-दिल

मिरी डगमगाती है नाव अब कहीं मिलता मुझ को कराँ नहीं

तुझे ढूँडूँ भी तो कहाँ कि जब हूँ मैं ख़ुद ही ज़ुल्मत-ए-यास में

मुझे बज़्म-ए-हस्ती में मिल सका तेरे नक़्श-ए-पा का निशाँ नहीं

ग़म-ए-दिल ही मेरा निकाल दो मिरी ज़िंदगी से जो तुम अगर

तो वो दास्ताँ ही कुछ और है मिरे हाल-ए-दिल का बयाँ नहीं

मैं सुनाऊँ किस को ये हाल-ए-दिल मैं दिखाऊँ किस को ये दर्द-ओ-ग़म

मैं हूँ ऐसी हालत-ए-ज़ार में कि ख़ुद अपना मुझ को गुमाँ नहीं

नहीं गीत बादा-ओ-जाम के यहाँ और ही कोई बात है

कि मैं जिस बला में हूँ मुब्तला वो बला-ए-इश्क़-ए-बुताँ नहीं

तू है ज़र्रे ज़र्रे में ज़ौ-फ़िशाँ नहीं मिलता फिर भी कहीं निशाँ

कोई 'शग़्ल' अब ये बताए क्या तू कहाँ है और कहाँ नहीं

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