गिला क्या करूँ ऐ फ़लक बता मिरे हक़ में जब ये जहाँ नहीं
गिला क्या करूँ ऐ फ़लक बता मिरे हक़ में जब ये जहाँ नहीं
कहूँ कैसे हाल-ए-दिल उन से मैं मिरी हिलती तक ये ज़बाँ नहीं
ये भँवर हैं बहर-ए-हयात के मैं हूँ ख़स्ता-हाल-ओ-शिकस्ता-दिल
मिरी डगमगाती है नाव अब कहीं मिलता मुझ को कराँ नहीं
तुझे ढूँडूँ भी तो कहाँ कि जब हूँ मैं ख़ुद ही ज़ुल्मत-ए-यास में
मुझे बज़्म-ए-हस्ती में मिल सका तेरे नक़्श-ए-पा का निशाँ नहीं
ग़म-ए-दिल ही मेरा निकाल दो मिरी ज़िंदगी से जो तुम अगर
तो वो दास्ताँ ही कुछ और है मिरे हाल-ए-दिल का बयाँ नहीं
मैं सुनाऊँ किस को ये हाल-ए-दिल मैं दिखाऊँ किस को ये दर्द-ओ-ग़म
मैं हूँ ऐसी हालत-ए-ज़ार में कि ख़ुद अपना मुझ को गुमाँ नहीं
नहीं गीत बादा-ओ-जाम के यहाँ और ही कोई बात है
कि मैं जिस बला में हूँ मुब्तला वो बला-ए-इश्क़-ए-बुताँ नहीं
तू है ज़र्रे ज़र्रे में ज़ौ-फ़िशाँ नहीं मिलता फिर भी कहीं निशाँ
कोई 'शग़्ल' अब ये बताए क्या तू कहाँ है और कहाँ नहीं
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