बहुत वाक़िफ़ हैं लब-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ से
बहुत वाक़िफ़ हैं लब-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ से
तबस्सुम है कहाँ लाऊँ कहाँ से
तसव्वुर भूल जाता है ख़ुदा को
ये टकराया है जब आह-ओ-फ़ुग़ाँ से
यक़ीं होने को है मायूसियों पर
तवक़्क़ो उठ रही है आसमाँ से
मुक़फ़्फ़ल हो ज़बाँ जिस बे-नवा की
वो क्यूँ कर क्या कहे अपनी ज़बाँ से
कहे कुछ भी मगर पुर-सोज़ होगा
हमें उम्मीद है अपनी ज़बाँ से
इलाही ख़ैर मेरे आशियाँ की
धुआँ सा उठ रहा है गुलिस्ताँ से
कहीं धोका न हो 'मग़मूम' ये भी
नज़र आते हैं कुछ धुँदले निशाँ से
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