तुम्हारी बज़्म भी क्या बज़्म है आदाब हैं कैसे
वही मक़्बूल होता है जो गुस्ताख़ाना आता है
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ज़बान ओ दहन से जो खुलते नहीं हैं
कोई हद भी है आख़िर इम्तिहाँ की
मुकम्मल दास्ताँ का इख़्तिसार इतना ही काफ़ी है
ज़मीं पर हैं वो कुछ मिट्टी के पुतले
ज़माने की कशाकश का दिया पैहम पता मुझ को
कहा झुँझला के अहल-ए-क़ाफ़िला से एक रहबर ने
कहानी अपनी अपनी अहल-ए-महफ़िल जब सुनाते हैं
शौक़-ए-सवाब कुछ नहीं ख़ौफ़-ए-अज़ाब कुछ नहीं
ज़िंदगी इक सवाल है जिस का जवाब मौत है
उमीदें तो वाबस्ता हैं अब्र-ए-तर से
ये मय-कश कौन बा-सद लग़्ज़िश-ए-मस्ताना आता है