ये मय-कश कौन बा-सद लग़्ज़िश-ए-मस्ताना आता है
ये मय-कश कौन बा-सद लग़्ज़िश-ए-मस्ताना आता है
इशारे होते हैं वो रौनक़-ए-मय-ख़ाना आता है
तुम्हारी बज़्म भी क्या बज़्म है आदाब हैं कैसे
वही मक़्बूल होता है जो गुस्ताख़ाना आता है
कहानी अपनी अपनी अहल-ए-महफ़िल जब सुनाते हैं
मुझे भी याद इक भूला हुआ अफ़्साना आता है
दुआ तेरी तिरे मंतर भला मक़्बूल क्या होंगे
बदी दिल में लिए सू-ए-इबादत-ख़ाना आता है
हवा-ए-ताज़ा अब्र-ए-तर फ़ुज़ूँ जोश-ए-नुमू लेकिन
नसीब-ए-दुश्मनाँ है खेत में जो दाना आता है
हर इक ठोकर पे है ऐ 'अम्न' लग़्ज़िश का गुमाँ मुझ को
हर इक पत्थर नज़र संग-ए-दर-ए-मय-ख़ाना आता है
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