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ये मय-कश कौन बा-सद लग़्ज़िश-ए-मस्ताना आता है - अम्न लख़नवी कविता - Darsaal

ये मय-कश कौन बा-सद लग़्ज़िश-ए-मस्ताना आता है

ये मय-कश कौन बा-सद लग़्ज़िश-ए-मस्ताना आता है

इशारे होते हैं वो रौनक़-ए-मय-ख़ाना आता है

तुम्हारी बज़्म भी क्या बज़्म है आदाब हैं कैसे

वही मक़्बूल होता है जो गुस्ताख़ाना आता है

कहानी अपनी अपनी अहल-ए-महफ़िल जब सुनाते हैं

मुझे भी याद इक भूला हुआ अफ़्साना आता है

दुआ तेरी तिरे मंतर भला मक़्बूल क्या होंगे

बदी दिल में लिए सू-ए-इबादत-ख़ाना आता है

हवा-ए-ताज़ा अब्र-ए-तर फ़ुज़ूँ जोश-ए-नुमू लेकिन

नसीब-ए-दुश्मनाँ है खेत में जो दाना आता है

हर इक ठोकर पे है ऐ 'अम्न' लग़्ज़िश का गुमाँ मुझ को

हर इक पत्थर नज़र संग-ए-दर-ए-मय-ख़ाना आता है

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