कहा झुँझला के अहल-ए-क़ाफ़िला से एक रहबर ने
कहा झुँझला के अहल-ए-क़ाफ़िला से एक रहबर ने
अभी तो पहली मंज़िल है अभी से क्यूँ लगे डरने
मुकम्मल दास्ताँ का इख़्तिसार इतना ही काफ़ी है
सुलाया शोर-ए-दुनिया ने जगाया शोर-ए-महशर ने
सर-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ चाँदनी छनती थी पत्तों से
दिया था क़ैद में क्या लुत्फ़ ऐसी शब के मंज़र ने
ज़माने की कशाकश का दिया पैहम पता मुझ को
कहीं टूटे हुए दिल ने कहीं टूटे हुए सर ने
हैं कितनी मुख़्तलिफ़ बाहम तबाए नस्ल इंसाँ की
रहे मा'ज़ूर अब तक जो चले थे तज्ज़िये करने
फ़िदा-ए-रंग-ओ-रोग़न सत्ह-बीं से क्या ग़रज़ उस को
जगह दी जिस को चश्म ओ दिल में हर इक अहल-ए-जौहर ने
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