अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिस में इंसान को इंसान बनाया जाए
जिस की ख़ुश्बू से महक जाए पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सम्त खिलाया जाए
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जा के नहाया जाए
प्यार का ख़ून हुआ क्यूँ ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूका तो तुझ से भी न खाया जाए
जिस्म दो हो के भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आँसू तेरी पलकों से उठाया जाए
गीत उन्मन है ग़ज़ल चुप है रुबाई है दुखी
ऐसे माहौल में 'नीरज' को बुलाया जाए
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