क्या कीजिए कशिश है कुछ ऐसी गुनाह में
मैं वर्ना यूँ फ़रेब में आता बहार के
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शादाँ न हो गर मुझ पे कड़ा वक़्त पड़ा है
ज़बान रक़्स में है और झूमता हूँ मैं
दौर-ए-फ़लक के शिकवे गिले रोज़गार के
शे'र कहने का मज़ा है अब तो
ख़ुदा गवाह कि दोनों हैं दुश्मन-ए-परवाज़
एक नज़्म
मुझ पे तू मेहरबान है प्यारे
इश्क़ में कब ये ज़रूरी है कि रोया जाए
अब शिकवा-ए-संग-ओ-ख़िश्त कैसा
रंगीनी-ए-हवस का वफ़ा नाम रख दिया
इक छेड़ थी जफ़ाओं का तेरी गिला न था