ख़ुदा गवाह कि दोनों हैं दुश्मन-ए-परवाज़
ग़म-ए-क़फ़स हो कि राहत हो आशियाने की
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
Mohsin Naqvi
Wasi Shah
Habib Jalib
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अब शिकवा-ए-संग-ओ-ख़िश्त कैसा
स्वाँग अब तर्क-ए-मोहब्बत का रचाया जाए
कि दर गुफ़्तन नमी आयद
फ़र्क़ ये है नुत्क़ के साँचे में ढल सकता नहीं
एक हुस्न-फ़रोश लड़की के नाम
इक छेड़ थी जफ़ाओं का तेरी गिला न था
फ़क़त इक शग़्ल बेकारी है अब बादा-कशी अपनी
एक नज़्म
फ़ितरत में आदमी की है मुबहम सा एक ख़ौफ़
जो शुआ-ए-लब है मौज-ए-नौ-बहार-ए-नग़्मा है
इश्क़ में कब ये ज़रूरी है कि रोया जाए
नज़्म